वो आज आशान्वित भी है और सशंकित भी। वो रोमांचित है और विचलित भी। एक अस्थिर स्थिरता के साथ, वो व्यथित है और विचलित भी है। जी हां, चिंताराम एक मनुष्य है और प्रकृति की अनबुझ पहेली से अचंभित भी है। आजकल वो घर में अपने परिवार के साथ पूरा दिन बिताता है। उसके बच्चे उसके साथ खेल के उतने ही उतावले हैं जितना दशहरे का मेला घूमने के लिए मिलने वाले अपने जेबखर्च से। आज खाना खाते हुए पहली बार उसे अपनी पत्नी के आंखों के नीचे काले गढ़्ढों को देख के महसूस होता है की किस्मत और जीवन से वो अकेले ही नहीं लड़ रहा है। आज उसका शरीर उसे मिलने वाले आराम के लिए दुवाएं दे रहा है मगर उसका मन आने वाले समय के लिए आशंकित है। उसके आंगन में चुप चाप खड़ी उसकी साइकिल उससे अपनी थकान की कहानी बयां कर रही है। जो 2 जून की रोटी के लिए पूरा दिन अपना खून पसीना एक कर देता था, आज उसे सहजता से घर बैठे राशन मिलने पर भी खुशी नहीं हो रही है। जो सरकारें पिछले 70 वर्षों में उसके बारे में नहीं सोच पाई वो आज अचानक मेहरबान हो गई हैं? जिस विपक्ष को उसके होने ना होने का कोई फर्क नहीं पड़ता वो आज उसका माई बाप बन गया है? कल यही सरकार विपक्ष और यही विपक्ष सरकार बन जाएगा परन्तु क्या उसका वजूद कभी बदल पाएगा?
आज सुबह सुबह उसने नहा धो के साफ सुथरे कपड़े पहने हैं और आइने में अपने आप को फुर्सत से देखा है। वो अपने परिवार से कुछ तारीफ की उम्मीद में उनकी तरफ देखता है मगर ये क्या? वो नन्ही आंखें शायद कुछ समझना चाह रहीं थीं, अपने पिता के नए रूप को परखना चाह रहीं थीं क्यूंकि उसने उनके लिए भर पेट खाना और राशन लाने का वायदा जो किया है। राशन वो पहले भी लाता था, पर इस बार कुछ अलग सा क्यूं लग रहा है, थोड़ा ही सही मगर बच्चों को कुछ क्यूं खटक रहा है? इन्हीं उधेड़बुन की भावनाओं से भरे उस घर के दरवाज़े पे अचानक एक दस्तक होती है। सजा धजा चिंताराम किवाड़ खोल के बाहर जाता है। अपने चेहरे पे एक मुरझाई सी मुस्कान के साथ पहले वो नीचे झुकता है, अपने घर आए अन्नदाता का पैर 1 मिनट तक छूता है और फिर अपने दोनों मजबूत मगर असहाय हाथों को छोटे छोटे राशन की कुछ थैलियों के लिए आगे बढ़ा तो देता है मगर 2 मिनट बाद ही ले पाता है। जी हां, एक नेता जी सफेद रंग का एकदम नया कुर्ता पायजामा पहने दरवाजे पर आए हैं, अपने शागिर्दों और कैमरामैन के साथ। मजबूत चिंताराम आज मजबूर बन गया है मगर प्रकृति नहीं खुद अपनों के हाथों। कल उसकी फोटो न्यूज पेपर में आयेगी और शायद वो सहानभूति का मुख्य केंद्र बिंदु भी बन जाएगा पर अपनी जंग खाती साइकिल और फावड़े को अकेले राशन कमाने पे क्या जवाब देगा? क्या यही उसकी और उसके परिवार की किस्मत है? क्या उसके बच्चे कभी उसके इस विरासत से मुक्त हो पाएंगे? क्या वो आज़ाद होते हुए भी अपनी संस्थाओं और राजनीति की दो कौड़ी की नौटंकी का यूं ही ग़ुलाम बना रहेगा? क्या उसका राशन उसका अधिकार नहीं था जिसे चंद बरसाती मेंढकों ने भीख बना दिया? क्या उसके बच्चे उसे गले लगाएंगे या उस सफेदी की चमकार को शुक्रिया करेंगे? इन सब प्रश्नों को सोचते हुए अभी कुछ समय भी नहीं बीता था कि फिर से दरवाज़े पे एक दस्तक होती है। चिंताराम बुशर्ट ठीक करके अपने आप को आईने में देखता है और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलने चल देता है।